Thursday, August 7, 2008

कोई नही आया
आज मेरे कोठे पर कोई नही आया । मैं दिन भर अपने कस्टमर का इंतजार करती रही , कोई नही आया । कल भी कोई नही आया था । मेरी समझ में नही आता कि आख़िर क्या हुआ है लोगों को , मेरा धंधा लगातार मंदा पड़ता जा रहा है । मैं अब यह धंधा छोड़ना चाहती हूँ । लेकिन मैं करूंगी क्या ? अब तो मैं किसी लायक नही रही , कम से कम इस शहर में तो नहीं ही रही । इस शहर के सारे दलाल, गुंडे , नेता , अभिनेता , चोर , चुहाड़ , पत्रकार , सेठ सब पहचानते हैं । अधिकांश नामधारी मेरे यहाँ आने के लिए बदनाम रहे हैं । लेकिन जब से देश में विकाश की बात होने लगी है , अमेरिका की बात होने लगी है , कम्प्यूटर की बात होने लगी है , बिजली और बम की बात होने लगी है , मेरे कस्टमर कम होने लगे हैं । लोग एड्स नाम की बीमारी के बारे में कह रहे हैं । मेरा एक कस्टमर कह रहा था कि अब एड्स का इतना हल्ला है , उसके डर से मेरे कस्टमर घट रहे हैं । मैं नही जानती यह एड्स क्या है , यह पहले लोगों को क्यों नही होता था , अब अचानक इतना क्यों होने लगा है कि मेरे कस्टमर सब डर गये हैं । बुरा हो इस एड्स का । इसे होना ही था , फैलना ही था तो पहले ही इतना फैला होता की मेरा सामूहिक बलात्कार करने से लोग डरते । मैंने जिससे प्रेम किया , उसने मुझे प्रसाद बना दिया , लेकिन उसे नही हुआ एड्स । उसने मुझे १० हजार में बेच दिया । उसका कुछ नही हुआ । वह सुना है अब ग्राम प्रधान हो गया है . बड़े -बड़े फैसले लेता है । अयोध्या में मन्दिर बनवाने के लिए लगी पार्टी का अपने इलाके में करता-धरता है। सुना है वह बच्चों को संस्कार देनेवाले स्कुल की देख-रेख करता है । मैं उस नासपिते, कोधिये की सब चाल समझती हूँ , क्या लोग नही समझते ? उस पर बज्जर गिरे । अब मेरा माथा दुःख रहा है । मेरी जिन्दगी तो नरक हो गयी । मैंने जहर -माहुर नही खाया जिन्दा मरती रही । पता नही और क्या-क्या देखना है मुझे ?

हम आवारा कुतियाँ हैं
कल देर रात तक मैं माथे के दर्द से तबाह रही । रेखा ने मेरा छटपटाना देखा , तो आकर मेरा माथा दबाने लगी । एक कस्टमर आया तो चली गई । दो घंटे बाद लौटी , तो कहने लगी कि बडा बोर आदमी था । वह पहली बार इधर आया था । उसे लेना -देना कुछ नही था , बेकार ही बकचोदी कर रहा था , पहले तो मन किया दो झापड़ देकर भगा दूँ , लेकिन उसका चेहरा बड़ा मासूम था रे , वह हमलोगों की परेशानियों की बात कर रहा था । उससे मुझे बडा डर लगा । वह कह रहा था कि वह हमारे बारे में अख़बार में लिखेगा , हमारी दिक्कतों को वह दुनिया को बताना चाहता है । पता नही क्या होगा , पहले तो मैं उससे बात करने से कतराती रही , लेकिन उसने कुछ बात ही ऐसी कही कि मुझसे रहा नही गया रे । समाज में , बाजार में , शहर में कहीं भी कौन पूछता है , लोग देख कर दूर हुए तो आँख मारते हैं , पास हुए तो हाथ । लोग सीधे कपडे में हाथ घुसाते हैं और देखते -देखते शरीर में ठूंठ घुसेड देते हैं । हम जब तक कुछ सोच पातीं हैं वे अपना बलगम हमारे शरीर में छोड़कर चल देते हैं । लोग सामने ही कौन गलियां नही देते , क्या नही कहते ....हम जानवर ही तो हैं रे ...जानवर को भी लोग कभी प्रेम से उसका मालिक पुचकार लेता है , हम आवारा कुतियाँ हैं , हमारे नसीब में लात और लिंग के सिवा कुछ नही । रोने लगी रेखा । वह उस आदमी के सामने भी शायद रोई थी , वह देर तक रोती रही और मेरा माथा दबाती रही । उसने मुझे खाने के लिए सेव दिया और दर्द की एक टिकिया ।

बोलिया बोले पापी पपीहा
आज का दिन थोड़ा खुशनुमा रहा । कई कस्टमर आए , जिसमे चार से सौदा पटा। सबकुछ अच्छा लगा । पैसे भी ठीक-ठाक मिल गये । वे उदार और भले लोग थे । शाम को एक मोटा मुर्गा फंसा तो मैंने और रेखा ने मिलकर मुजरा किया -
हाथ में मेंहदी मांग
सिंदुरवा बरबाद कजरवा हो गैले
बाहरे बलम बिना नींद ना आवे
बाहरे बलम बिना नींद ना आवे
उलझन में सवेरवा हो गईले
बाहरे चमके देवा गर्जे घनघोर
बदरवा
हो गइलेपापी पपीहा
बोलियाँ बोले पापी पपीहा बोलिया बोले पापी पपीहा
दिल धड़के सुवेरवा हो गईले
बाहरे बलम बिन नींद न आवे
उलझन में सुवेरवा हो गईले
अरे पहिले पहिले जब अइलीं गवनवा
saasoo से झगड़ा हो गईले
बाकें बलम पर...अहा अहाबांके बलम परदेसवा विराजें
उलझन में सुवेरवा हो गईले
हाथ में मेंहदी मांग सिंदुरवा
बरबाद कजरवा हो गइले

4 comments:

Amit K Sagar said...

असमंजस में हूँ,
तुम्हें क्या लिखूं
तुमने जो कहा
उसका हिसाब लिखूं
या जिंदगी की कोई
और एक किताब लिखूं
तुम लिख सक्टी हो
मुझसे भी बेहतर...
इसलिए क्यों न तुम्हें
आदाब लिखूं!
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आदाब...आपने जो भी फरमाया है, महज़ इक महाज़ और मजे की बात तो नहीं हो सकती...मैं पिछले १ साल से इस विषय पर काम कर रहा हूँ...आपको पढ़के और भी जानकारियों से गुजरुंगा...शुक्रिया...
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यहाँ आयें;
उल्टा तीर
अमित के. सागर
ocean4love@gmail.com

शोभा said...

बहुत ही सुन्दर लिखा है। बहुत-बहुत स्वागत है आपका।

ललित said...

आपके कोठे पर अन्ततः छुपते छुपाते ही गया। कहीं मुझे कोई देख न ले, क्योंकि धर्मनेता जो हूँ। परन्तु हाँ सिर्फ दर्शन पूजा करने ही आया हूँ। देवी की मूर्ति बनानी है, जो किसी कोठे की एक मुट्ठी मिट्टी लिए बिना नहीं बन सकती। जगतजननी की प्रतिमा की प्रतिष्ठा के लिए जगतप्रेयसी की चरण रज अनिवार्य है...

Mohinder56 said...

सुन्दर प्रयास है यह एक वर्ग विशेष की पीडा को लोगों तक पहुंचाने का...अगर यह एक हास्य मात्र या खेल भर नहीं है तो...
लिखते रहिये..,. पढने वालों की कमी नहीं... मगर सिर्फ़ सहानुभूति से जिन्दगी नहीं चलती उसके लिये स्वंय के प्रयास आवशयक हैं