Wednesday, July 30, 2008

हम आवारा कुतियाँ हैं

कल देर रात तक मैं माथे के दर्द से तबाह रही । रेखा ने मेरा छटपटाना देखा , तो आकर मेरा माथा दबाने लगी । एक कस्टमर आया तो चली गई । दो घंटे बाद लौटी , तो कहने लगी कि बडा बोर आदमी था । वह पहली बार इधर आया था । उसे लेना -देना कुछ नही था , बेकार ही बकचोदी कर रहा था , पहले तो मन किया दो झापड़ देकर भगा दूँ , लेकिन उसका चेहरा बड़ा मासूम था रे , वह हमलोगों की परेशानियों की बात कर रहा था । उससे मुझे बडा डर लगा । वह कह रहा था कि वह हमारे बारे में अख़बार में लिखेगा , हमारी दिक्कतों को वह दुनिया को बताना चाहता है । पता नही क्या होगा , पहले तो मैं उससे बात करने से कतराती रही , लेकिन उसने कुछ बात ही ऐसी कही कि मुझसे रहा नही गया रे । समाज में , बाजार में , शहर में कहीं भी कौन पूछता है , लोग देख कर दूर हुए तो आँख मारते हैं , पास हुए तो हाथ । लोग सीधे कपडे में हाथ घुसाते हैं और देखते -देखते शरीर में ठूंठ घुसेड देते हैं । हम जब तक कुछ सोच पातीं हैं वे अपना बलगम हमारे शरीर में छोड़कर चल देते हैं । लोग सामने ही कौन गलियां नही देते , क्या नही कहते ....हम जानवर ही तो हैं रे ...जानवर को भी लोग कभी प्रेम से उसका मालिक पुचकार लेता है , हम आवारा कुतियाँ हैं , हमारे नसीब में लात और लिंग के सिवा कुछ नही । रोने लगी रेखा । वह उस आदमी के सामने भी शायद रोई थी , वह देर तक रोती रही और मेरा माथा दबाती रही । उसने मुझे खाने के लिए सेव दिया और दर्द की एक टिकिया ।

2 comments:

नदीम अख़्तर said...

aap achhaa kalpana kar lete hain. bhai sahab, lekin ye kahaniyaan thodi zyada hee zaaykedaar ho chali hain, kuchh reality isse kam chatkhaaredaar hoti hai. khair, jo bhee ho. aap achhaa kahani garhte hain. garhte rahiye...

kuda kumari said...

nadim bhaee aaiye aur batate rahiye ki kahan gabada rhi hoon, yh to jindgani hai ...mai nhi chahti yh kahani lge...